top of page
पहला पत्र
पहला पत्र

01-20

दूसरा पत्र
दूसरा पत्र

मैं लोगों से तुम्हारे बारे में जो सुन रहा हूँ और जो तुम अपने बारे में लिखते हो , इनको देख कर लगता है कि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है । तुम बार-बार अपना घर नहीं बदलते हो जिससे तुम्हारा ध्यान पढ़ाई पर से नहीं हटाता है , लगातार घर बदलना एक तरह की बेचैनी को दर्शाता है , इस तरह की बेचैनी एक अस्त-व्यस्त(disordered) दिमाग का प्रतीक है । मेरे हिसाब से सुव्यवस्थित(well-ordered) इंसान वो है, जिसमे एक जगह पर ठहरे रहने की क्षमता हो और वह अपनी संगत में वक़्त बिता सके । 
अलग-अलग लेखकों और भिन्न-भिन्न प्रकार की किताबें पढ़ने से सावधान रहना क्यों कि ऐसा करना तुम्हें अस्थिर बना सकता है । तुम्हें उन्ह कुछ लेखकों की किताबें पढ़नी चाहिए जिनके ज्ञान और प्रतिभा पर कोई उंगली ना उठा सके , यह किताबें तब तक पढ़नी चाहिए जब तक उनके शब्द हमारे मन में घर ना कर जाए । यदि तुम अपनी पढ़ाई से कुछ हासिल करना चाहते हो तो इस पथ को अपनाओ । हर जगह पर होना कही ना होने के समान है । जो लोग अपने पूरा जीवन विदेश यात्राओं पर खर्च कर देते हैं, उनके परिचित तो बहुत बन जाते हैं पर सच्चा दोस्त नहीं बनाता ।  यही बात उन लोगों पर भी लागू होती है जो किसी एक महान लेखक के काम को ध्यान से नहीं पढ़ते ,पर लेखकों के बीच कूदते रहते हैं और इनके कामो को ऊपर-ऊपर से ही देखते हैं । खाना अगर पेट में ठहरने से पहले ही उगल दिया जाए तो ऐसा खाना हमारा पोषण नहीं करता है । बार-बार दवाइयाँ बदलना उपचार में बाधा पहुँचता है । जिस घाव पर अलग-अलग औषधियों का प्रयोग किया जाता है वह कभी ठीक नहीं होता है । जो पौधा बार-बार उखाड़ कर दूसरी जगह लगाया जाता है वो पौधा कभी मज़बूत पेड़ नहीं बन पाता है । ? । इसी तरह बहुत सारी पुस्तकें इंसान का ध्यान भंग कर देती हैं और रास्ते का रोड़ा बन जाती हैं  ।  
अब तुम सभी किताबें तो नहीं पढ़ सकते हो , इसलिए तुम्हें उतनी ही किताबें संजोनी चाहिए जितनी तुम पढ़ सको । अब तुम कहोगे "मगर मुझे अलग समय पर अलग किताब पढ़ने का मन करता हैं " ,इसका जबाब मैं यह दूँगा कि  : एक पकवान चखने के बाद दूसरा पकवान चखना मीन-मेख निकालने वाले मन को दर्शाता है , विविध प्रकार के पकवान पेट में जा कर शरीर को प्रदूषित करते हैं ना कि पोषण देते हैं । इसलिए  हमेशा महान लेखको के कामो को ही पढ़ो  , यदि तुम्हें कुछ बदलाब का दिल करे तो उन पुस्तकों को पढ़ो जिन्हें तुम पहले पढ़ चुके हो ।  
प्रत्येक दिन अपनी जिंदगी में कुछ ऐसा उतारो जो तुम्हें गरीबी, मौत और बीमारियों का सामना करने में मदद करे । पूरे दिन विभिन्न विचारों से रूबरू होने के बाद किसी एक विचार को चुनो और उसे पुरे दिन जिंदगी में उतारने की कोशिश करो । मैं भी ऐसा ही करता हूँ, बहुत सारी चीज़े पढ़ने के बाद मैं सिर्फ एक अच्छी बात को पूरे दिन अपनाता हूँ । आज मैं तुम्हें  Epicurus की कही हुई बात बताता हूँ - मैं अक्सर दुश्मनों के शिविर जाता हूँ , भगोड़े के रूप में नहीं जासूस के रूप में । (मतलब अपने दोस्तों से करीब अपने दुश्मनों को रखो )। 
Epicurus ने यह भी कहा है - एक संतुष्ट गरीबी एक सम्मानजनक स्थिति है । अगर जिंदगी में कोई इंसान अपनी स्थिति से संतुष्ट है तो वो कभी गरीब नहीं कहलाएगा । गरीब वो नहीं जिसके पास कम चीज़े हैं, गरीब वो है जो जिसकी लालसा कभी खत्म नहीं होती है । इससे क्या फर्क पड़ता है कि इंसान के खाते में कितने पैसे हैं , उसके भेड़-बकरियों के झुण्ड कितने बड़े हैं या उसे कितना ब्याज मिलता है , अगर वो अपने पड़ोसी से जलन करता रहे और अपनी सम्पति और स्थिति से संतुष्ट ना हो कर और लालसा करे । तुमने मुझसे पूछा था कि व्यक्ति के धन की उचित सीमा क्या है ? इसका उत्तर है - इंसान के पास सारी आवश्यक वस्तुएँ होनी चाहिए और यह वस्तुएँ उसके लिए पर्याप्त होनी चाहिए ।

तीसरा पत्र

तुमने अपने “ मित्र “ के हाथों मुझे पत्र भेजा है , इस पत्र में तुमने सन्देश वाहक को "मित्र" संबोधित किया है । अगले ही वाक्य में तुमने मुझे चेतानवी दी है कि मैं तुमसे संबंधित किसी भी विषय में उसके सामने बात ना करूँ, क्योंकि तुम खुद दूसरों को अपनी बातें नहीं बताते हो । दूसरे शब्दों में , तुमने एक ही पत्र में पहले उसे अपना दोस्त बताया है और फिर इंकार कर दिया ।

तुम्हारा इस पत्र में “दोस्त” शब्द का इस्तेमाल करना वैसा ही है जैसा किसी को “सज्जन” या “महोदय” बोलना , जब हम किसी का नाम भूल जाए। अगर तुम किसी को अपना दोस्त समझते हो और फिर उस पर अपने जितना विश्वास नहीं करते हो तो तुम एक गंभीर गलती कर रहे हो और इससे पता चलता है कि तुम्हें सच्ची दोस्ती कि पूरी समझ नहीं है । निश्चित रूप से तुम्हें दोस्त के साथ हर विषय में चर्चा करनी चाहिए; पर सबसे पहले व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में सोच-विचार करो । दोस्ती करने से पहले आदमी को परखो और यह जानने कि कोशिश करो कि वो तुम्हारी दोस्ती के लायक है या नहीं । मित्रता होने के पहले आदमी को परखना चाहिए और बाद में उस पर भरोसा करना चाहिए । बहुत से लोग ठेयोफ्रास्टस कि सलाह के विपरीत पहले दोस्ती करते हैं फिर आदमी को परखते हैं , यह वैसा ही है जैसा गाड़ी को घोड़े के आगे लगाना । लंबे समय तक सोचें कि व्यक्ति दोस्ती के लायक है भी या नहीं पर जब तुम मित्रता करने का फैसला कर लो तो उसका खुले दिल और आत्मा से स्वागत करो । उससे ऐसे बात करो जैसे कि अपने साथ बात कर रहे हो ।

 हाँ कुछ मामले होते हैं जिनमें हमें चुप्पी रखनी चाहिए , पर मित्र के साथ कम से कम चिंताए बाँटनी चाहिए और विचार-विमर्श करना चाहिए । मित्र को अपना वफ़ादार मानो तो वह आपने आप तुम्हारा वफ़ादार बनेगा । धोखे के डर ने कुछ लोगों को धोखा खाना ही सिखाया है , अपने दोस्तों पर शक कर के इन लोगों ने अपने दोस्तों को धोखा देने का अधिकार दिया है । जब मैं दोस्त के साथ हूँ तो मैं क्यों अपनी बातें खुल कर ना करूँ ? मैं क्यों अपने आप को दोस्त की संगत में अकेला समझू ?

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हर किसी को अपने निजी मामले बताने लग जाते हैं जब कि ऐसी चीज़े मित्र को ही बतानी चाहिए । कुछ तो अपने सबसे करीबी मित्र से भी अपनी चीज़े छुपाते हैं और यदि संभव होता तो वे अपने आप को भी अपने रहस्य नहीं बताएगें, इन लोगों को तो अपने आप पर भी विश्वास नहीं होता है । हर किसी पर विश्वास करना और किसी पर भी विश्वास ना करना , दोनों ही मूर्खता है । (हर किसी पर विश्वास करना , भोलापन है और किसी पर भी विश्वास ना करना , सुरक्षित व्यवहार है। )

इन दो प्रकार के लोगो से दूर रहो - इंसान जो आलसी हो और दूसरा वो इंसान जो हमेशा अशांत और बेचैन रहता हो । हमेशा हड़बड़ाहट करना , मेहनत के लक्षण ना हो कर अशांत मन के चिन्ह है । जो इंसान हर काम में आनाकानी करे और हर काम को थकान-भरा समझे , इस प्रकार का आदमी आलसी है ना कि शांत मन का ।

इसी से मुझे पोम्पोनियस की कही हुई बात याद आयी है - कुछ लोग अंधेरे कोनों में इतने सिकुड़ जाते हैं कि उन्हें उज्ज्वल दिन के उजाले में भी कई चीज़े धुंधली दिखती हैं । हमें एक इंसान में दोनों नज़रियों का संतुलित मिश्रण चाहिए - अशांत मन का इंसान जो शांत रहना जानता हो और आलसी आदमी जो समय आने पर काम कर सके । अगर प्रकृति को देखोगे तो जानोगे कि उसने दिन और रात दोनों बनाए हैं ।

तीसरा पत्र
चौथा पत्र
चौथा पत्र
पाँचवा पत्र

पाँचवा पत्र

मैं तुम्हारी पढ़ाई में लगन को देख कर बहुत खुश हूँ और तुम्हारे सब कुछ बलिदान करके , हर दिन एक बेहतर इंसान बनने के प्रयासों की तारीफ करता हूँ । मैं तुमसे आग्रह नहीं , प्रार्थना करता हूँ कि तुम इस पथ पर चलते रहो । मैं तुम्हे एक सलाह देना चाहता हूँ : उन लोगों का अनुसरण मत करो जो आत्म-सुधार करने के बजाए   , हमेशा दूसरों का ध्यान अपने पहनावे या अपनी जीवन-शैली पर खीचना चाहते हों । गंदे कपड़े पहनना, मैले बाल रखना , गंदी दाढ़ी रखना , चाँदी के बर्तनों से घृणा करना और जमीन पर सोना दिखावा करने के गलत तरीके हैं । फिलोसोफी का नाम पहले ही बहुत खराब चल रहा है और कल्पना करो कि क्या होगा जब हम ऐसे काम कर के समाज से दूर होने लगेंगे । अंदरूनी तौर पर हमें दूसरों से अलग होना चाहिए पर बाहरी तौर पर दूसरों जैसा होना चाहिए ।

इंसान को रद्दी और भड़कीले कपड़े नहीं पहनने चाहिए । हमें सोने से जड़ित चाँदी के बर्तनों की कोई आवश्यकता नहीं है , मगर हमें यह भी नहीं सोचना चाहिए कि सोने और चाँदी के बर्तन ना होना हमारी सादगी को दर्शाता हैं । 

हमारा उद्देश्य भीड़ की तुलना में बेहतर जीवन-स्तर रखना है ना कि इसका उल्टा करना , या फिर हम उन्हीं लोगों को दूर कर देगें जिनको हम सुधारना चाहते हैं । यदि हम निम्मतर जीवर स्तर रखेगें तो लोगों को यह डर सताने लगेगा कि यदि वह हमारा अनुसरण करेगें तो वह भी हमारे जैसे बन जाएगे ।

फिलोसोफी हमें भाईचारे और आदरणीय नागरिक बनाने का वादा करती है पर दूसरों से अलग होना मतलब इस वादे का बहिष्कार करना हुआ । हमें देखना चाहिए कि प्रशंसा हासिल करने के पीछे कही हम उपहास या हंसी के पात्र ना बन जाए । जैसे कि तुम जानते हो हमारा सिद्धान्त प्रकृति के अनुसार जीना है ; पर शरीर पर अत्याचार करना , साफ-सफाई ना रखना , जान बूझ कर गन्दा रहना , घिनौना आहार लेना प्रकृति के खिलाफ़ है । जैसे बहुत कीमती भोजन करना ऐयाशी की निशानी है वैसे ही अच्छा खाना जो सस्ते मे मिल जाये उसे भी ना खाना, पागलपन की निशानी है । 

फिलोसोफी हमें सादा जीवन जीने को कहती है पर इसका यह मतलब नहीं है कि हम अपने शरीर को गंदे रख कर उस पर अत्याचार करें , हमें सादा और साफ रहना चाहिए । 
हमारी  जीवन-शैली एक साधु (आदर्श)  की जीवन-शैली और लोकप्रिय जीवन-शैली के बीच में एक समझौता होना चाहिए ,  हर कोई हमारी जीवन-शैली की सरहाना करें पर उन्हें ऐसे जीने कर मतलब भी समझ आना चाहिए । अब तुम पूछोगे कि " क्या हममें और आम लोगो में कोई भेद नहीं होना चाहिए ? क्या हमें भी दूसरों जैसे व्यवहार करना चाहिए ?"  हाँ फ़र्क तो जरूर होना चाहिए  । हमें करीब से जानने वालों को पता होना चाहिए कि हमारी सोच दूसरों से भिन्न है । हमारे घर में प्रवेश करने वाले , हमारे चरित्र की सरहाना करें ना कि घर के सामान की । वो इंसान महान है जो मिट्टी के बर्तनों को चाँदी के बर्तन समझे और उतना ही महान वो इंसान है जो चाँदी के बर्तनों को मिट्टी के बर्तन समझ कर इस्तेमाल करें । धन को असहनीय बोझ समझना भी अस्थिर मन की निशानी है । 

आज मैं तुम्हे हेकैटो की कही हुई बात बताता हूँ - " इच्छाओं पर काबू पा कर हम डर पर काबू पा सकते हैं  ।  आशा का अन्त करके , तुम डर खत्म कर सकते हो "  । अब तुम बोलोगे कि " इतनी अलग दो चीज़े  एक साथ कैसे जुड़ी हो सकती हैं ? " . 

मेरे दोस्त लुसिलिउस ,  दिखने में तो यह दोनों अलग हैं पर असल में यह दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं  । इन दोनों का एक साथ होना वैसा ही है  जैसा कैदी और सैनिक का एक रस्सी से बंधे होना । डर आशा के साथ तालमेल बना कर चलता है । इन दोनों के एक साथ चलने से मैं बिलकुल भी आश्चर्य-चकित नहीं हुआ हुँ क्यों कि यह दोनों उस मन में जनम लेते हैं जो असमंजस या भविष्य की चिंताओं से घिरा हुआ होता है । आशा और डर के होने का मुख्य कारण हमारा वर्तनाम में ना रह कर भविष्य में अटका रहना है । इस प्रकार दूरदर्शिता जो मानवता का सबसे बड़ा वरदान है वह एक अभिशाप के रूप में तब्दील हो गया है । जंगली जानवर किसी खतरे से बचने के बाद उसके बारे में चिंता नहीं करते हैं पर इंसान अतीत और भविष्य की चिंताओं से घिरा रहता हैं । हमारे वरदान ही हमें नुकसान पहुँचाते हैं , जैसे याददाश्त अतीत की पीड़ा वापिस लाती है जबकि दूरदर्शिता हमें आने वाले कल से डराती है  ।

© 2023 by Name of Site. Proudly created with Wix.com

  • Facebook Social Icon
  • Twitter Social Icon
  • Google+ Social Icon
bottom of page